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गज़ब है सच को सच कहते नहीं वह , क़ुरान औ उपनिषद खोले हुए हैं।

अकलियत की मार्फ़त ये शासन करना चाहते हैं भारत धर्मी समाज पर। इस पटकथा का लेखन और मंचन किस्तों में होता रहा है भले गोधरा (पटकथा अंक १ )के मुज़रिम सज़ा पा गए लेकिन एक मलिका जिसे सब  जानते हैं और जो  एक बड़ी राजनीतिक पार्टी की अध्यक्ष कमोबेश रही आईं है दिमाग उसका था या गुजरात का इस मामले को एक बार इसका अन्वेषण करने के लिए फिर खोला जा सकता है। असली कुसूरवार नित नए गुल खिला रहें हैं। 
नागरिकता तो बहाना है असल काम अल्पसंख्यकों की आड़ में भारत को टुकड़ा टुकड़ा करने का रहा आया है इसी वजह से संविधानिक संस्थाओं को अदबदाकर तोड़ा और बदनाम किया जा रहा है काला कोट बनाम खाकी वर्दी उसका एक नमूना भर था।
बाज़ जाने किस तरह हमसे ये बतलाता रहा ,
क्यों परिंदों के दिलों से उसका डर जाता रहा।
मोदी को आये तो जुम्मा -जुम्मा आठ रोज़ हुए हैं :यह सिलसिला तो जयेन्द्र  सरस्वती  (भारत धर्मी समाज के एक प्रतीक पुरुष) -को कटहरे में घसीट कर लाने के साथ ही शुरू हो गया था। औरों को 'तू' खुद को 'आप 'कहने वाले 'आपिए ' अकेले शरीक नहीं रहें हैं इस साज़िश में इसमें वेमुला को आत्महत्या के  मुहाने तक लाने वाले मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलाम भी शरीक रहें हैं। पैसा दुबई और ओमान का रहा है ,ऐसा कहा समझा जाता है , प्रोग्रेसिव फ्रंट आफ इंडिया उसका एक पुर्ज़ा हो सकता है काले कोट वाले कार्यक्रम  क्रियान्वयन  का पुर्जा  हो सकते हैं लोग कितने ही और भी हैं। इस मर्तबा सीधे संविधान की प्रतियां पूजकर गैर -संविधानिक तौर पर रास्ता रोककर एक और गणतंत्र मनाया गया है। शाहीन बागी गणतंत्र है यह। यह एक समान्तर इंतज़ामात की मानिंद है। जिसे संविधान के नाम पर वाज़िब ठहराने की कोशिशें ज़ारी हैं।

परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं ,

हवा में सनसनी घौलेहुएहैं।

गज़ब है सच को सच कहते नहीं वह ,

 क़ुरान औ उपनिषद खोले हुए हैं।

हमारा कद सिमट कर घट गया है ,

हमारे पैरहन झोले हुए हैं।    

ऐसे ही एक नार्थ ईस्ट की महिला थीं जो बारह बरस तक अपनी ज़िद पर कायम रहीं।  कोशिश थी उनकी फौज  के हाथ बंधवाना -बाँधना। आर्म्ड फोर्सिज स्पेशल पावर्स एक्ट को हटवाना इनका मकसद था। देखना है शाहीन बाग़ के बाज़ और कबूतर -कबूतरियां कब तक पलते हैं फलते फूलते हैं उधारिया पैसे पर ?

संक्रांति के बाद मौसिम भले बदल गया है। अब तो  संविधान  को ही टुकड़े टुकड़े करना चाहता है टुकड़े टुकड़े गैंग न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। टुकड़े टुकड़े गैंग के  पटकथा लेखकों को कटहरे में लाने की इज़ाज़त 'आपिया ' गैंग नहीं दे रहा है।ये नाक का मामला है दिल्ली की सल्तनत अकलियत के हाथों में आ गई दिखलाई देती है इस गैंग को।
आखिर विरोध के अपने कायदे क़ानून हैं संविधान सम्मत औज़ार हैं विरोध जतलाने के व्यापक सवाल उठाता है उसे एक बड़े फलक पर फैला देता है बद्री नारायण जी का विचार पोषित लेख ( विरोध की मयादाएँ  और संभानाएं ,दैनिक हिन्दुस्तान २७ जनवरी २०२० अंक ).

खुद को एक स्वयंचयनित मंच सौंपना है विरोध। ये अच्छा है लेकिन जो तरीका सड़क को खामोश करके उससे ,उसके चलते रहने का धर्म छीनकर अपनाया गया है क्या वह संविधानिक है ? क्या अकलियत ऐसा ही भारत चाहती हैं ?

हमारा मानना हैं अल्प और बहुसंख्यक का सहजीवन ही भारत की खसूसियत  और शान रहा आया है। ध्यान रहे -इसकी शान को बट्टा न लग पाए. 

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