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Sacred Scriptures of Sanatan Dharma (HINDI )with systemetic details

हमारे पावन ग्रंथों को दो भागों में रखा जा सकता है :

(१) श्रुति ग्रन्थ और 

(२ )स्मृति ग्रंथ 

श्रुतिग्रंथ शाश्वत सिद्धातों  का बखान करते हैं।स्मृतिग्रंथ इन सिद्धांतों के व्यावहारिक बर्ताव की बात करते हैं। 

वेदों को श्रुति (ग्रंथ) भी कहा गया है क्योंकि इनका प्रसार श्रवण के द्वारा हुआ है। 
वेदों को  कर्म काण्ड और ज्ञान काण्ड के तहत रखा जा सकता है। 

(१ )संहिता और 

(२ )ब्राह्मण ग्रंथों में कर्म काण्ड का   खुलासा  है।

ज्ञान काण्ड को 

(१ ) आरण्यक ग्रंथ और 

(२ )उपनिषद विस्तार से समझाते हैं।  

वेदों को सब सनातन धर्म के ग्रंथों का मूल माना गया है।इनका इहलाम,प्राकट्य ,प्रसव (Revelation ) ,साधना रत ऋषि मुनियों के हृदय  में हुआ। ऋषि कृष्ण द्वैपायन को इस शाश्वत विस्तार पाते ज्ञान को क्रमबद्ध  कर संयोजित और विभाजित करने का नेक काम सौंपा गया। क्योंकि अब इसविस्तृत ज्ञान को  श्रुति परम्परा के तहत समेटना मुश्किल हो चला था। 

इसलिए इन्हें व्यास (विभाजन करता ) कहा गया जो समास का विलोम है। 
चार भागों में समेटा गया   यह वृहद् ज्ञान  :

(१ )रिग वेद जो सामन्य ज्ञान की चर्चा करता है 
(२ ) यजुर्वेद इस ज्ञान को व्यवहार में लाना सिखाता है इसीलिए इसे नालिज  आफ एक्शन (Knowledge of Action )भी कहा गया  है। 
(३ )सामवेद उपासना की पद्धतियां बखान करता है 
(४ )अथर्व वेद विज्ञान का विस्तृतज्ञान  (वि )ज्ञान है। 

उपनिषद का ऋषि कहता है प्रश्न करो। भारतीय मेधा को सारा ज्ञान प्रश्न की मथानी से मथे जाने के बाद ही मिला है।प्रश्न की गुणवत्ता ने ही ज्ञान की गुणवत्ता को सुनिश्चित और स्थापित किया है।आरण्यक और उपनिषद यही काम करते हैं।  अरण्य में साधना करने वालों के लिए हैं आरण्यक। 
२२० उपनिषद की जानकारी श्रुति (गुरु शिष्य परम्परा )के तहत आई है इनमें से १०८ उपनिषद प्रकाशित हैं। 
ग्यारह उपनिषदों की व्याख्या आदिशंकराचार्य ने की है जो शंकर भाष्य कहलाई है। इनमें प्रमुख हैं :

ऐतरेय (ऋग्वेद के तहत ),कठोपनिषद (यजुर्वेद के तहत ),ईशावास्योपनिषद  (ईशोपनिषद )यजुर्वेद के तहत ,छान्दोग्य (सामवेद के अंतर्गत )केनोपनिषद (सामवेद के अंतर्गत ) माण्डूक्य (अथर्वेद ),कौषीतकि (ऋग्वेद )के अंग रूप में ,तैतरीय (यजुर्वेद की शाखा के तहत ),वृहदारण्यक (यजुर्वेदीय उपनिषद ),प्रश्न (प्रश्नोपनिषद )यजुर्वेद तथा मुण्डक (अथर्वेद )की एक शाखा के रूप में जाना गया है।

 ज़ाहिर है हरेक वेद या फिर उसकी आगे की गई शाखाओं के तहत उससे सम्बद्ध कोई न कोई  उपनिषद रहा आया है। 

ऐतरेय उपनिषद हमारे निजस्वरूप (आत्मन )की चर्चा करता है। कठोपनिषद में मृत्यु  के देवता यम और नचिकेता के बीच संवाद हैं । ईशा उपनिषद ब्रह्म और उसकी अनुभूति कैसे हो इस पर रौशनी डालता है। ब्रह्म  वैयक्तिक अनुभव अनुभूति का विषय है इसे ओब्जेक्टिफाई नहीं किया जा सकता। 
छन्दोग्य उपनिषद यज्ञ (fire sacrifice )और उपासना की अन्य पद्धतियों पर प्रकाश डालता है। केन में भी इन्हीं का विस्तार है। माण्डूक्य उपनिषद निराकार परमात्मा (ब्रह्म) की चर्चा करता है। कौषीतकि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का क्या होता है ,प्राण और मोक्ष प्राप्ति की चर्चा करता है। तैतरीय परमात्मा रचित सृष्टि को खोलकर समझाता है। 
वृहदारण्यक स्व :(self )की तमाम अवधारणों को नकारता है। 

It negates all conceptions of self .

 श्वेताश्वर उपनिषद जो युजुर्वेद की एक शाखा के तहत आया है सृष्टि के तमाम प्राकट्य के पीछे केवल ब्रह्म को ही देखता है। सृष्टि ब्रह्म (Brahman )का  ही विस्तार है। अव्यक्त का व्यक्त होना ही है। 

प्रश्नोपनिषद सृष्टि के मूलभूत कारण उसके प्रकार्य ,संचालन ,Functioning of the vital force of life को समझाता है। 

माण्डूक्य जानने योग्य परमज्ञान क्या है जिसे जानने के बाद फिर कुछ और जानना शेष नहीं रहता इसका खुलासा करता है। 

(ज़ारी )

विशेष : प्रकारांतर सृष्टि और ब्रह्म एक दूसरे  से अलग नहीं है यह जो कुछ भी है दृश्य या फिर अ -दृश्य यह ब्रह्म ही है। यही मूल स्वर है उपनिषदों का। 

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